15 Feb 2018

हलवा



दिसंबर का दिन था,
आंखे खुलने से मना करती थी,
खुलकर करती भी क्या?
सर्द कोहरे में इनका काम कम था।
फिर भी इनसे लड़कर
बाजार से
बेहतरिन लाल गाजर,
दूध और शुद्ध देसी घी लेकर आया था।

पुरानी गृहशोभा से
तरला दलाल का नुस्खा पढ़ कर,
धीमी आंच पर
घी पिघलाकर,
कसी हुई गाजर और दूध पका कर,
अपना पहला हलवा बनाया था।

सर्दिया आती जाती रहती है,
आंखे अब भी लड़ती है,
हलवा अब भी बनता है,
पर उस पहले हलवे का स्वाद,
आज भी ज़बान पर अटका है।

0 comments:

Post a Comment

Hey there! What do you think about this post?

Note: only a member of this blog may post a comment.